सारा संसार एक पुस्तक है

एक बहुत खूबसुरत बाग था। बीच में बड़ा-सा फव्वारा, चारों तरफ कालीन की तरह बिछी हरी घास और क्यारियों में रंग-बिरंगे फूल झूम रहे थे। लोग सुबह-शाम बाग को देखने-घूमने आते। वहाँ इतनी भीड़ रहती कि बेंचो पर जगह ही नहीं मिलती। कुछ लोग तो नियमित सैर के लिए आते थे। इनमें एक युवक भी था जो प्रतिदिन बाग में आता। पर बाग की सुंदरता से दूर एक घनी झाड़ी के पास बैठकर किताब पढ़ता रहता। वह किताबें पढ़ने में इतना तल्लीन रहता कि उसे आने-जाने वालों का ध्यान ही नहीं रहता।

एक व्यक्ति प्रतिदिन इस युवक को इतने लगन से पढ़ाई करते देखता तो उसे आश्चर्य होता कि इतने आने-जाने, घूमने वालों के बीच वह युवक इस तरह तन्मय होकर कैसे पढ़ लेता है! बाग के सौंदर्य, फूल फव्वारे कुछ भी उसे पढ़ाई से विमुख नहीं कर पाते।

एक दिन वह व्यक्ति उस युवक के पास गया, बोला- “बेटा, लोग तो यहाँ घूमने-फिरने आते हैं, तुम यहाँ पढ़ने आते हो। यहाँ की सुंदरता और सुहावने वातावरण में भी तुम किस तरह पढ़ाई करते रहते हो ?”

युवक ने किताब से आँखें उठाई और मुस्करा दिया और बोला- “मुझे इन किताबों को छोड़ घूमने-फिरने में सुख और कहाँ मिल सकता है। इसलिए मैं जहाँ भी जाता हूँ कुछ-न-कुछ पढ़ता और सीखता रहता हूँ।”

“हर समय, हर जगह…?” व्यक्ति ने आश्र्चय से पूछा।

“जी हाँ, यह संसार भी एक पाठशाला है। हम प्रतिदिन यहाँ कुछ-न-कुछ सीखते हैं।”- कहते हुए युवक ने अपनी आँखे पुनः पुस्तक में गढ़ा ली।

यही युवक बड़ा होकर रामतीर्थ कहलाया। रामतीर्थ को बचपन से ही पढ़ने का शौक था, बचपन में मित्र इन्हें ‘पढ़ाकू तोता’ कहकर चिढ़ाया करते थे। पर रामतीर्थ की पढ़ने की आदत पर इन सबका असर कभी भी नहीं पढ़ा। पड़ता भी कैसे, उसने तो सारे संसार को ही पुस्तक मान लिया था।

कथा उवाचः
दरअसल, यह संसार एक पाठशाला है। हम चाहें

तो हर चीज में, हर क्षण में कुछ-न-कुछ सीख सकते हैं

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