रेवती ने तिर्थकर नाम कर्म का बंद कैसे किया?

केवलिचर्या में विचरते हुए तेरह वर्ष बीत गए तब भगवान महावीर चौदहवें वर्ष में मेढीग्राम पधारे। भगवान के पधारने की खबर से वहाँ के लोग बहुत प्रसन्न हुए और झुण्ड के झुण्ड प्रभु-दर्शन एवं देशना श्रवण के लिए जाने लगे। किन्तु प्रभु के एक कुशिष्य गोशालक को यह बात पसन्द नहीं आयी। वह कुछ दिनों से प्रभु के साथ वैर बनाए हुए था, अतः प्रभु की ख्याति, प्रसिद्धि और गुणग्राम का उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ा। उसने अपने दुष्ट प्रभाव से प्रेरित होकर प्रभु की जीवन लीला समाप्त करने की ठानी।

गोशालक ने प्रभु पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया। प्रभु चाहते तो उसे ऐसा करने से रोक सकते थे परन्तु उन्होंने उसका कोई प्रतिरोध नहीं किया। परिणामस्वरूप लेश्या के प्रभाव से आपके शरीर में असह्य पीड़ा उत्पन्न हो गई। पित्तज्वर से शरीर जलने लगा और खून का स्राव होने लगा। क्षण-क्षण वेदना की वृद्धि होने से आपके समीपस्थ सन्तों में व्याकुलता एवं क्षोभ का वातावरण छा गया। सभी चिन्तित हो गये कि कैसे इस दुस्सह व्याधि का निवारण किया जाय? किन्तु प्रभु वीतरागी होने से सर्वथा निराकुल बने रहे।

प्रभु का प्रिय शिष्य सिंहमुनि, जो मालुकाकच्छ में ध्यान कर रहा था। आपकी वेदना के विचार से विचलित हो उठा और आर्त्तध्यान करते हुए विलाप करने लगा। प्रभु ने उसे पास बुलवाया और कहा-मैं तो शुक्ल ध्यान में लीन हूँ, तुम व्यर्थ में ही मेरी चिन्ता क्यों करते हो? अगर तुम मेरे इस शारीरिक कष्ट को दूर करना चाहते हो तो रेवती के घर जाओ और जो औषध उसने मेरे निमित्त तैयार की है उसको ग्रहण न करके अन्य जो दूसरा प्रासुक पाक है उसमें से थोड़ा-सा पाक माँग कर ले आओ।

प्रभु के कथनानुकूल सिंहमुनि रेवती के घर गये और जो औषध रेवती ने भगवान के लिए तैयार की थी उसको न लेकर, याचना करके निर्दोष बिजोरा पाक ले आये। उस पाक के सेवन से प्रभु का शारीरिक कष्ट दूर हो गया। वस्तुतः रेवती बड़ी भाग्यशालिनी श्राविका थी जिसको कि यह अलभ्य लाभ प्राप्त हुआ। भक्ति और भाव की प्रबलता से रेवती ने तीर्थङ्कर गोत्र उपार्जन कर लिया। निर्दोष औषधदान से रेवती ने यह अक्षय पुण्य फल प्राप्त किया।

संयमी साधु का जीवन परदत्त वस्तु से संचालित होता है। वह संयम साधना हेतु शरीर के लिए आवश्यक अन्न-जल याचना द्वारा ग्रहण करता है। अन्न-जल तो कदाचित् बहुत जगह मिल जाते हैं किन्तु औषधी का दान सब जगह सुलभ नहीं होता। रेवती प्रभु की प्रमुख श्राविका थी। उसने प्रभु के लिए विधीपूर्वक औषधी तैयार कर रखी थी। परन्तु प्रभु तो सर्वज्ञ है, उन्होंने सदोष औषध का निषेध कर प्रासुक दूसरा पाक मँगाया। इस प्रकार उपयुक्त पात्र को उच्च भाव से शुद्ध औषध बहराकर ही रेवती ने तीर्थङ्करगोत्र जैसा उच्च पद का बंध किया, जो कि बड़ी-बड़ी तपस्या और लम्बी साधना के बल से भी सबको सदा नसीब नहीं होता।

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