पुणे, आज जिनशासन की परम प्रभाविका, महाराष्ट्र प्रवर्तनी ज्ञानगंगोत्री पूज्य गुरुणीसा प्रभाकंवरजी महाराज साहब की 98 वीं जन्म जयंती है। इस पावन अवसर पर उनके अद्वितीय जीवन, कठोर साधना और अटूट समर्पण को स्मरण करते हुए, ‘श्री सदगुरु चैतन्य बहु मंडल’ की स्थापना की गई। गुरुणीसा का जीवन स्वयं दूसरों को प्रकाश देने वाली एक ‘मोमबत्ती’ के समान था, जिन्होंने अपने पूरे जीवन को संयम और धर्म के मार्ग पर समर्पित कर दिया।
पिता को खोकर भी संस्कारों से सींचा गया जीवन
पूज्या प्रभाकंवरजी म.सा. का जन्म श्रावण सुदी पंचमी को शिरोली ( जालना) में हुआ था। लोणार आपका गांव था। उनकी माता का नाम राजमति और पिता का नाम श्रीचंदजी बेदमुथा था। मात्र 18 दिन की आयु में ही उन्होंने अपने पिता को खो दिया था। इस अकल्पनीय दुःख की घड़ी में भी उनकी माताजी ने उन्हें धर्म और संस्कारों की वर्णमाला सिखाई, उन्हें अनुशासित जीवन जीने और दीक्षा मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया। बचपन से ही उन्होंने ‘अ’ से अनुशासित जीवन, ‘आ’ से आज्ञा में रहना, ‘उ’ से उच्च जीवन और ‘इ’ से ईश्वर स्तुति का पाठ सीखा।
ज्ञान और संयम की नींव
6 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने प्रतिक्रमण सीखा और गुरुणीसा परम पूज्य मानकंवरजी म.सा. की सेवा में ज्ञान-ध्यान अर्जित करने लगे। एक बार गुरुदेव पूज्य गणेशलालजी म.सा. ने भविष्यवाणी की थी कि ये ‘पाची’ (प्रभाकंवरजी का बचपन का नाम) जिनशासन को खूब दीपाएगी।
न्यायालय में संघर्ष और पुलिस सुरक्षा में दीक्षा
जब पूज्य गुरुणीजी म.सा. बुलढाणा में विराजित थीं, तब पाची ने दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प लिया। उनके बड़े पिताजी ने उन्हें रोकने का भरपूर प्रयास किया और यहां तक कि माता और पुत्री के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा भी दायर कर दिया। 15 वर्ष की आयु में पाची ने न्यायालय में शास्त्र सम्मत उत्तरों से सभी को अचंभित कर दिया। न्यायाधीश ने उन्हें दीक्षा की अनुमति दी, लेकिन बड़े पिताजी ने पुनः दूसरे न्यायालय में अपील दायर कर दी। अंततः, संघर्षों और कानूनी अड़चनों के बावजूद, रविवार के दिन भी न्यायालय खुला और न्यायाधीश ने उन्हें दीक्षा की आज्ञा दी, साथ ही पुलिस सुरक्षा भी प्रदान की। इस प्रकार, आंधियों और तूफानों के बीच, 15 वर्ष की आयु में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और ‘पूज्या प्रभाकंवरजी म.सा.’ के नाम से जाने गए।
अद्वितीय अनुशासन और शिष्य निर्माण की कला
गुरुणीसा के जीवन में अनुशासन का अद्भुत महत्व था। उन्होंने कभी भी दीवार का सहारा नहीं लिया, और अपने गुरुणीसा के हर उपालंब को सहर्ष स्वीकार किया। उनका जीवन स्वयं में ‘आचारांग’ और ‘भगवती’ था, जो उनके आचरण से ही झलकता था। एक बार अस्वस्थ होने पर जब उन्हें कुछ भी खाने में कठिनाई हुई, तब उन्होंने एक माह तक दोनों समय केवल मूंग दाल और रोटी का सेवन किया, जो उनकी साधना का परिचायक था।
उन्होंने संस्कृत, प्राकृत आगमों का गहरा ज्ञान प्राप्त किया और अनेक प्रांतीय भाषाओं में भी निपुण थीं। उन्होंने सिंह के समान संयम लिया और उसे सिंह के समान ही पाला। उन्होंने परम पूज्य कीर्तिमुनिजी म.सा., श्रुतमुनिजी म.सा., गौरवमुनिजी म.सा. जैसे अनेक संतों को दीक्षित कर जिनशासन को सशक्त किया।
ऐसे महान पुरुषार्थी गुरुवर्या के चरणों में कोटि-कोटि वंदन और नमन। उनका जीवन आज भी संयम और साधना के मार्ग पर अग्रसर होने वाले हर साधक के लिए एक अमर प्रेरणा है।