सोनगढ़ के राजा चतुरसिंह समय-समय पर अपने दरबारियों से सवाल पूछकर उनके ज्ञान की परीक्षा लिया करते थे। सही उत्तर मिलने पर भारी इनाम भी देते थे। इस कारण प्रत्येक दरबारी अपने चारों तरफ की जानकारी रखता था।
एक बार उन्होंने अपने मंत्री से पूछा “मंत्रीजी ! मुझे चार प्रश्नों के जवाब दो। पहला, जो यहाँ हो, वहाँ नहीं। दूसरा वहाँ हो, यहाँ नहीं। तीसरा, जो न यहाँ हो, न वहाँ अंतिम सवाल, जो यहाँ भी हो और वहाँ भी।”
मंत्री सोच में पड़ गया। उसने उत्तर देने के लिए राजा से दो दिन का समय माँगा। राजा ने कहा “दो दिन का समय लीजिये, लेकिन उत्तर सही होना चाहिए।” तीसरे दिन मंत्री चार व्यक्तियों के साथ राजा के सामने उपस्थित हुआ और बोला
“महाराज! हमारे धर्मग्रंथों में अच्छे-बुरे कर्मों और उनके फलों के अनुसार स्वर्ग और नरक की अवधारणा दी गई है। यह पहला व्यक्ति भ्रष्टाचारी है। गलत कार्य करके यहाँ तो सुखी और संपन्न दिखाई देता है, पर इसकी जगह वहाँ यानी स्वर्ग में नहीं होगी। दूसरा व्यक्ति सद्गृहस्थ है। ईमानदारी से रहते हुए यहाँ कष्ट जरूर भोग रहा है, पर इसकी जगह वहाँ (स्वर्ग में) जरूर होगी। यह तीसरा व्यक्ति भिखारी है। यह पराश्रित है। यह न हो यहाँ सुखी है और न वहाँ सुखी रहेगा। यह चौथा एक दानवीर सेठ है। यह अपने कमाए हुए धन का सदुपयोग करते हुए दूसरों की भलाई भी कर रहा है और स्वयं भी सुखी और संपन्न है। इस तरह यह अपने उदार व्यवहार के कारण यहाँ भी सुखी है और
अच्छे कर्म के कारण इसका स्थान वहाँ भी सुरक्षित है।” राजा ने प्रसन्न होकर मंत्री को सौ स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में दीं।