हस्तिनापुर नगर में महापराक्रमी बाहुबली के पौत्र श्रेयांसकुमार युवराज पद का भोग कर रहे थे। एक बार उन्होंने स्वप्न देखा कि श्याम-रंग मेरु पर्वत को मैं अमृत घट से सिंचित कर रहा हूँ। दूसरी ओर राजा ने भी स्वप्न में देखा कि शत्रुओं के साथ लड़ते हुए योद्धाओं को श्रेयांसकुमार की सहायता से विजय प्राप्त हुई। इधर नगर के सेठ सुबुद्धि ने भी उसी रात स्वप्न सूर्य को मन्दतेज होते देखा।
प्रातःकाल राजसभा में आकर सबने अपने-अपने स्वप्न की बातें बतायी। राजा ने कहा कि श्रेयांसकुमार को महालाभ होने वाला है। सभा का कार्य सम्पन्न होने पर सब अपने-अपने स्थान चले गये। श्रेयांस भी अपने महल के झरोखे में बैठकर चौराहे की ओर देखने लगा। यह उस समय की बात है जब भगवान ऋषभदेव दीक्षा ग्रहण करके भिक्षा को निकले और लोग भिक्षादान की विधि से अनभिज्ञ होने के कारण फल, फूल, हीरा, मोती, कन्या आदि प्रभु को देने को तत्पर हुए। वे यह नहीं समझ सके कि इन्हें इन सबका त्याग है। पूरा वर्ष भर होने को आया। प्रभु चलते-चलते हस्तिनापुर पधारे और श्रेयांस के महल के पास से निकले। श्रेयांस ने प्रभु को राजमार्ग पर आते देखा। साधुवेश देखते ही उसको जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उन्होंने जान लिया कि प्रभु आरम्भ-परिग्रह के त्यागी हैं। संसार की मोहक सामग्री से इन्होंने नाता तोड दिया, अतः ये मात्र भिक्षा में मिलने वाले निर्दोष पदार्थ ही ग्रहण कर सकते हैं।
भावविह्वल होकर श्रेयांसकुमार प्रभु के चरणों में वन्दन पूर्वक भिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करने लगे। प्रभु वर्षीतप के पारणा के लिए भिक्षार्थ बाहर निकले थे। उन्होंने श्रेयांस की भक्ति को मान दिया तथा उनके यहाँ भिक्षा के लिए पधार गये। क्योंकि वे जानते थे कि श्रेयांस साधु धर्म और चर्या के विपरीत आहार नहीं देंगे। संयोगवश उस समय इक्षुरस के ताजे घड़े आये हुए थे। श्रेयांस ने इक्षुरस देने का भाव प्रकट किया तो प्रभु ने सहज रूप से आये हुए इक्षुरस को ग्रहण कर उसके मनोरथ को पूर्ण कर दिया।
एक वर्ष पश्चात् श्रेयांसकुमार के यहाँ प्रभु को आहार प्राप्त हुआ। इस समाचार से लोक-लोकान्तर में महान हर्ष फैल गया। देवों ने वसुधारा बरसायी। पंच दिव्य प्रगट हुए और अहोदान की गूँज से गगनमण्डल गुंजायमान हो उठा। इस भौतिक लाभ के अतिरिक्त उन्होंने अनन्त आत्मशक्ति को प्रगटाने के लिए तीर्थंकर पद की योग्यता प्राप्त कर ली।
श्रेयांसकुमार ने भी नगरजनों को आहार दान की विधि समझायी। इस प्रकार दान के प्रभाव से उन्होंने इहलोक और परलोक दोनों सुधार लिये। हम भी शुद्ध भाव के द्वारा दान देकर आत्मिक सुखों को प्राप्त कर सकते हैं।