शिखर से बातेंप.पू आ.भ.श्रीमद् विजय रत्नसुंदरसूरीश्वरजी महाराज

अपने महल में जाकर सुरसुन्दरी ने त्रियाचरित्र दिखाना शुरु कर दिया। सर के बाल बिखेर लिए, कपड़े अस्त-व्यस्त कर लिए, हाथों से मसलकर आँखें लाल कर ली और मुँह बिगाड़कर पलंग
पर सो गयी।
कुछ ही देर में हरिषेण आया। बाहर खड़ी विमला से पूछा, ‘रानी कहाँ है ?’
‘आप ही जाकर देख लीजिये न !’ विमला के इस अशिष्टतापूर्ण जवाब में हरिषेण को कुछ अमंगल घटित होने का अंदेशा हुआ।
अन्दर जाकर देखा तो शोकमग्न अवस्था में पलंग पर सोयी सुरसुन्दरी नजर आयी।

‘देवी! यह क्या ?’

‘आपकी हैसियत ही क्या है ? आखिर तो आप भीमसेन के नौकर ही हैं न? नौकर से किसी भी बात की अपेक्षा रखना ही गलत है।’

‘पर हुआ क्या है? जो भी हुआ हो मुझे सच-सच बता दो और फिर देखो मेरी ताकत ! तुम्हें नाराज करने की हिमाकत करनेवाले को मजा चखा दूँगा।’

और घटी हुई घटना में अपना द्वेषभाव घोलकर उसने सारी बात हरिषेण को बतायी। इतना ही नहीं, बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘कुछ वर्ष पूर्व कुलदेवी की आराधना करके मैंने उनसे यह माँगा था कि मेरे पति को बारहवें वर्ष में राज्य मिलना चाहिये, अन्यथा मेरी मौत होनी चाहिये।

परन्तु साधना से प्रसन्न हुई देवी ने मुझे वरदान दिया था कि तुझे मरने की कोई जरुरत नहीं। तेरे पति को बारहवें वर्ष में राज्य अवश्य मिलेगा।

स्वामी ! अब वे दिन नजदीक आ गये हैं। आप तो जानते ही हैं कि देवताओं के वचन कभी मिथ्या नहीं होते। वैसे भी राज्य का कारोबार संभालने में आप तो प्रवीण हैं तो फिर यह अपमान आखिर कब तक सहेंगे ? एक मामूली दासी चाहे जैसे शब्द बोल जाये और मैं सब कुछ सुनती ही रहूँ ? इससे तो बेहतर यह है कि मैं फाँसी लगाकर जीवन समाप्त कर लूँ।

आप आराम से जीवन बिताइयेगा, भाई-भाभी की सेवा कीजिएगा और मेरे जैसी कोई रुपवती स्त्री मिल जाए तो उससे शादी कर लीजिएगा। मुझे तो अब एक भी दिन जीने की इच्छा नहीं।’

सुरसुन्दरी ने स्त्री-चरित्र का नाटक कैसा बखूबी खेला! उसने कितनी चतुराईपूर्वक झूठ बोलकर हरिषेण को अपने विश्वास में ले लिया। और कान का कच्चा हरिषेण सुरसुन्दरी की बात सुनते ही आवेश में आ गया।

‘सुन, सुरसुन्दरी ! यह तेरा नहीं, मेरा अपमान है। मैं इसका बदला लिये बिना चैन से नहीं बैठूँगा। भीमसेन तो सिर्फ नाम का राजा है। राज्य का कारोबार तो में ही चलाता हूँ। उसे भी दिखा दूँगा कि हरिषेण के साथ के बिना राज्य का कार्यभार संभालना कितना मुश्किल है!’

‘परन्तु आपको उनका साथ देने की आवश्यकता ही क्या है?’

‘तुम कहना क्या चाहती हो ?’

‘आप उन्हें पदच्युत करके राजगद्दी पर ही आरूढ़ हो जाईए। फिर मुझे भी शान्ति और आपको भी शान्ति ! फिर न कभी झेलना पड़ेगा यह अपमान और न कभी पैदा होगा कलह का प्रसंग! और वैसे भी भीमसेन और सुशीला ने इतने साल बहुत मौज कर ली है। क्या कभी उन्होंने आपसे कहा कि अब तू राजगद्दी संभाल ले? वे तो जिंदगीभर राजगद्दी छोड़नेवाले नहीं हैं।’

सुरसुन्दरी की बात हरिषेण को जँच गयी। उसने कह दिया ‘मैं
कल ही भीमसेन को राजगद्दी पर से हटाकर स्वयं राजगद्दी पर बैठ जाऊँगा। संयोग से यदि मुझे इसमें सफलता नहीं मिली तो भीमसेन, सुशीला, देवसेन व केतुसेन… सबको यमलोक पहुँचा दूँगा, परन्तु अब यह स्थिति और ज्यादा नहीं चलने दूँगा। तू पूर्णतः निश्चिन्त हो जा। हरिषेण की शक्ति का परिचय तुझे जल्दी ही मिल जाएगा।’

सुरसुन्दरी यही तो चाहती थी। उसे रानी बनने की उत्कट अभिलाषा थी। उसकी यह अभिलाषा सीधी तरह तो पूर्ण होने की कोई संभावना थी नहीं। उसे आम वाली बात का निमित्त मिल गया और कच्चे कानवाले हरिषेण को उत्तेजित करने में वह सफल हो गयी।

कैसा विचित्र है यह संसार! कैसी भयंकर है यह महत्वाकांक्षा की वृत्ति! कितनी कष्टप्रद है इस महत्त्वाकांक्षा को सफल बनाने के लिये होनेवाली प्रवृत्ति ?

न वहाँ संबन्धों की शर्म है, न कोई स्नेह की बात! हिंसक को दयालु बनाना एकबार आसान है, झूठे को सत्यवादी बनाना बहुत मुश्किल नहीं, चोर को साहुकार बनाना शायद कठिन नहीं, व्यभिचारी को सदाचारी बनाने में भी सफलता मिल सकती है, लोभी को संतोषी बनाया जा सकता है, परन्तु महत्त्वाकांक्षा का भूत जिसके सर पर सवार हो गया हो उसे गलत रास्ते से पीछे लौटाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

अन्यथा हरिषेण के जीवन में कौन-सी तकलीफ थी ? उसे भीमसेन की ओर से अन्याय सहन करने का कौन सा अवसर आया था? सुशीला से सुरसुन्दरी को कहाँ कोई तकलीफ थी ? अरे ! कर्कश शब्दप्रयोग भी किया था तो सुशीला की दासी ने इसमें सुरसुंदरी को इतना आवेश में आने की जरुरत ही क्या थी ? सुरसुन्दरी स्त्रीसहज ईर्ष्या की शिकार बन गयी, परन्तु इसमें हरिषेण को अपनी विवेकबुद्धि गिरवी रख देने की क्या आवश्यकता थी ?

जो कुछ हुआ उसे आपस में बैठकर सुलझाया जा सकता था, गलतफहमी दूर की जा सकती थी। दासी सुनंदा ने गलती की तो उसे सुशीला की सेवा से निवृत्त किया जा सकता था।
परन्तु इनमें से एक भी रास्ता स्वीकारने का विचार न तो सुरसुन्दरी को आया और न ही हरिषेण को ! वह तो निकृष्टतम स्तर पर पहुँच गया है! या तो राजगद्दी हाथ में या भीमसेन सपरिवार परलोक में!

परन्तु रे हरिषेण ! कर्मसत्ता के हाथ तुझसे लंबे हैं। धर्मसत्ता की ताकत कर्मसत्ता से कई गुना ज्यादा है। आज भले ही तुझे तेरी ताकत पर अभिमान है, परन्तु कुदरत ने तो कुछ और ही सोचा है। तुझे शायद क्षणिक सफलता मिल जाएगी परन्तु अन्तिम जीत किसकी होगी, यह देखने के लिये तुझे थोडी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

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