मरुदेवी माता ने किस तरह सर्वोत्तम गति को प्राप्त किया…?

भगवान आदिनाथ की माता मरुदेवी को कौन नहीं जानता होगा ? युगलिक युग के अन्त में, सिद्धि पाने वाली नारियों में आपका स्थान सर्वप्रथम है। आपने ही इस अवसर्पिणी काल में मोक्ष का दरवाजा खोला है। आपका पुण्यबल अनुपम था और स्वभाव की सरलता, नम्रता बेजोड़ थी।

भगवान आदिनाथ के दीक्षित हो जाने पर आप बहुधा सोचती रहती थीं कि इतनी बड़ी राज्यलक्ष्मी छोड़कर मेरा पुत्र क्यों घूम रहा है? मरुदेवी माता.. मेरा ऋषभ..मेरा ऋषभ.. कहकर विलाप करती थी। ठंडी बारिश गर्मी में सोचती थी, मेरा नंद कैसा होगा? कैसे सहन करता होगा? उसे कितनी गर्मी लगती होगी? बारिश वर्षा बंद ना हो और वह गोचरी ना ला सके तो वह क्या खाता होगा? माता को अपना नंद कितना प्यारा होता है.. नंद को माता प्यारी हो ना हो..! दुखी हो रही थी! पुत्र शोक से विकल माता को देखकर भरत ने प्रार्थना की-“माँ! चलो, मैं आपको भगवान की विभूति का दर्शन कराता हूँ। देव घूमते हुए विनीता के बाहर ही पधार गये हैं।”

भगवान के पधारने की बात सुनकर मरुदेवी बड़ी प्रसन्न हुई और हाथी पर बैठकर पुत्र के साथ प्रभु-दर्शन को गयी। समवसरण के निकट पहुँच कर जब देवों के गमनागमन के विमान दृष्टिगोचर होने लगे तो भरत ने कहा-“माँ ! देखो भगवन् की यह आश्चर्यकारिणी प्रभुता है। इसके सामने मेरी राज्य लक्ष्मी की क्या सत्ता है?”

मरुदेवी बड़े स्नेह और उत्सुकता भरे नयनों से आदिनाथ की ओर देखती एवं सोचती रही कि, मेरा लाल निश्चय ही अब मुझे कुछ कहेगा। पर आदिनाथ तो वीतराग थे। माँ और पुत्र का ममत्वभाव न जाने कब उनके मन से दूर हो गया था। संसार की समस्त नारियाँ उनके लिए मातृ-समान बन गयी थीं। किसी के प्रति राग और द्वेष के लिए अब यहाँ कोई गुंजाइश ही नहीं रह गयी थी। मरुदेवी के प्रति उनके मन में जरा भी राग का उदय नहीं हुआ।

मरुदेवी माता के मन में कलुषित भाव आए.. मैं ऋषभ ऋषभ कह रही हूं और वह देखता ही नहीं लेकिन तुरंत उनके विचार शुभ भाव में बदल गए। वह एकचित्त से प्रभु की निस्पृहता एवं वीतरागता का विचार करती हुई अध्यवसायों की शुद्धि से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष अधिकारिणी बन गयी।

भरत क्षेत्र में मातृसिद्ध का यह पहला उदाहरण था। इसे अतीर्थसिद्ध भी कहा जाता है। चिर-प्रव्रज्या और साधना के बिना भी मरुदेवी ने सिद्धि प्राप्त कर ली।

सिद्धि के लिए उपयुक्त स्थान और आसन की जितनी अपेक्षा नहीं है, उससे अधिक शुद्ध भावों की है। मरुदेवी हाथी पर बैठी-बैठी ही भगवान ऋषभदेव की ऋद्धि को देखकर शुभ भावों से भर गयी। और उसी समय केवल ज्ञान प्राप्त कर सिद्ध हो गयी। अगर सिद्धि में सहायक भाव शुद्धि न हो तो निश्चय माता मरूदेवी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकती थी। इससे विदित होता है कि भावशुद्धि ही मोक्ष प्राप्ति में सहायक है।

मनुष्य जीवन का परम ध्येय मोक्ष है। अनादिकाल से जीव जन्म-मरण के जाल में उलझा हुआ दुःखानुभव से पीड़ित बना हुआ है उससे पिण्ड छुड़ाने के लिए मुक्ति प्राप्ति ही परम पुरुषार्थ है। संसार के सभी तपस्वी इसी के लिए तपश्चर्यादि निरत रहते हैं और ऐसे सर्वोत्कृष्ट सुखदायी मोक्ष का बीजभूत कारण भाव ही है। जिसकी भावना शुद्ध है निश्चय मोक्षरूप परमसुख भी उसी को प्राप्त होगा।

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