आहार क्यों और कैसे?

इन्द्रियों में भी रसनेन्द्रिय अति चंचल है उस पर विजय पाने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय है-आयंबिल तप। विगइयों के आहार से इन्द्रियों पर संयम पाना कठिन है। आयंबिल तप एक ऐसा तप है कि जिसमें सर्व विगइयों का त्याग होता है और साथ ही में इसका सेवन दीर्घकाल तक किया जा सकता है।

आयंबिल तप का सेवन भी अनेक प्रकार के अनुष्ठानों में किया जाता है जैसे नवपद ओली की आराधना, निरन्तर अथवा एकान्तर पांच सौ आयंबिल तप की आराधना, वर्धमान तप की आराधना इत्यादि ।

प्रारम्भ में आयंबिल करने में कुछ कठिनाई पड़ सकती हैं परंतु धैर्यता के साथ निरंतर अभ्यास किया जाय तो आयंबिल तप बहुत ही सरल बन जाता है। वर्तमान में भी ऐसे अनेक व्यक्ति देखने को मिलते है जिनको प्रारम्भ में आयंबिल करने में तकलीफ रहती थी परन्तु उन्ही व्यक्तियों ने अपनी धैर्यता से आयंबिल चालू रख सौ सौ ओली तक पूर्ण की है।

आयंबिल तप बाह्य व आम्यंतर दोनों दृष्टि से लाभकारी है। आयंबिल का भोजन पचाने में हल्का होने से आरोग्य को भी लाभ करता है और साथ ही साथ आत्मा के कर्म मैल को भी साफ करता है।

छट्ट के पारणे उत्कृष्ट आयंबिल तप करने वाले कांकदी धन्ना अणगार के तप की प्रशंसा महावीर प्रभु ने स्वमुख से की थी ।

निरन्तर अथवा एकांतर पांच सौ आयंबिल तप के सेवन से आत्मा का भाव आरोग्य प्रगट होता है। आयंबिल के साथ साथ अभ्यंतर तप की साधना से आत्मा धीरे धीरे कर्म मल से मुक्त बनती जाती है। आयंबिल तप के विशेष लाभों की प्राप्ति तभी होती है जब इस तप का दीर्घकाल तक सेवन किया जाय । इस दृष्टि से आयंबिल तप के विशेष लाभों की प्राप्ति निरन्तर पांच सौ आयंबिल करने से हो सकती है।

पूर्वकाल में अनेक महर्षियों ने अपने जीवन में पांच सौ आयंबिल तप की आराधना की है।

अहिंसा व संयम के पालन के साथ साथ जीवन में आयंबिल तप का भी सुमेल हो जाय तो आत्मा अवश्य अल्प भवों में कर्म मल से रहित बन, शाश्वत शिव सुख का भोक्ता बन सकती है।

लाभदायी उपवास

आहार की आसक्ति तोड़ने के लिए ही जैनधर्म में तप-धर्म का विधान किया गया है।

देह को टिकाने के लिए आहार की आवश्यकता रहती है, किन्तु वह आहार, देह-साधन के बजाय स्वाद का कारण बन जाय तो वह आहार देह के लिए विष भी बन सकता है।

जन्म-जन्मान्तर से हर आत्मा में आहार आदि की आसक्ति पड़ी हुई है. उस आसक्ति को तोड़ने के लिए जैनदर्शन में उपवास आदि तप बतलायें गये हैं।

उप अर्थात् समीप में और वास अर्थात् रहना । उपवास में आत्मा के समीप रहने का होता है। उपवास में यदि आहार की आसक्ति न टूटे तो वह उपवास, उपवास न रहकर लंघन बन जाता है।

उपवास केवल आहार-त्याग की कोई स्थूल प्रक्रिया नहीं है, किन्तु उसमें आसक्ति-त्याग/इन्द्रियजय की सूक्ष्म रासायनिक प्रक्रिया होती है।

उपवास में आहार का त्याग यह उपवास का स्थूल अर्थ है। वास्तव में उपवास के द्वारा अपनी चेतना को आत्मा की ओर केन्द्रित किया जाता है।

भोजन के समय अपना ध्यान देह पर केन्द्रित होता है, जबकि उपवास में दैहिक-प्रवृत्ति का त्याग हो जाने से अपनी चेतना, आत्मा पर आसानी से केन्द्रित हो सकती है।

★ उपवास आत्मानुशासन की श्रेष्ठ प्रक्रिया है। उपवास के द्वारा चित्त शान्त, निराकुल, निष्काम व निर्लिप्त बनना चाहिए ।

★ वास्तव में, उपवास राग की आग को जीतने का भरसक प्रयत्न है।

★ उपवास से आत्म-वैभव बढ़ता है और आत्मा विशुद्ध बनती जाती है।

★ उपवास द्वारा इन्द्रियों की चंचलता पर अंकुश पाने का प्रयत्न किया जाता है।

★ उपवास के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। जिसने आसक्ति को तोड़ डाला है, ऐसे योगी पुरुष आहार करते हुए भी उपवासी कहलाते हैं ।

डॉ. ओटोवकिंजर एम. डी. का स्पष्ट अभिप्राय है कि “उपवास देह के विजातीय द्रव्यों को समाप्त करता है और शरीर में पैदा हुए सब अवांछ-नीय कूड़ा-करकट को जला देता है ।”

★ उपवास से पाचन प्रणाली आमाशय एवं रक्षक अवयवों की शारीरिक क्रिया की दृष्टि Physiological से विश्राम मिलता है। उपवास के बाद खाद्य का पाचन एवं पोषण का योग अधिक तेज हो जाता है।

★ उपवास रोग निवारण का श्रेष्ठ साधन है। रुग्णावस्था में पशु भी सबसे पहले खाना बन्द कर देते हैं। परन्तु रसना का गुलाम मानव रुग्णावस्था में भी स्वादिष्ट पदार्थों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो पाता है।

★ उपवास से मानसिक क्षमता भी बढ़ती है। उपवास काल में पाचन संस्थान बड़ी मात्रा में संचित व्यर्थ पदार्थ को जलाता एवं निष्कासित करता है।

★ उपवास तो प्रकृति की मांग है। पशु-पक्षी के शरीर में थोड़ी सी गड़बड़ होती है और वे तुरन्त खाना बन्द कर देते हैं। मानव शरीर में भी जब विजातीय तत्त्व बढ़ जाते हैं, तब स्वतः पाचन तंत्र विश्राम चाहता है। उपवास से पाचन तंत्र को विश्राम तो मिलता ही है, साथ में विजातीय तत्त्व भी नष्ट हो जाते हैं, जो अपने स्वास्थ्य को बढ़ावा देते हैं ।

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