स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ में लगने वाले व्यक्ति देह से मरकर भी अमर हो जाते हैं। जनता उन्हें सदा श्रद्धा ही से याद करती है।
बात उस समय की है, जब बाल गंगाधर तिलक ने वकालत की परीक्षा पास कर ली थी। उनके एक मित्र ने उनसे पूछा- अब क्या करना चाहते हो? सरकारी नौकरी या स्वतंत्र वकालत ?
गंगाधर जी बोले- मुझे इतने पैसे की भी जरूरत नहीं कि मैं सरकार की नौकरी करके अफसरशाही की गुलामी करूँ और वकालत भी करना नहीं चाहता हूँ।
फिर मित्र क्या बोलते। बात भी आई-गई हो गई।
कुछ दिनों बाद मित्रों को पता चला कि गंगाधर तो एक स्कूल में अध्यापक बन गए। यह देख उनके दोस्त उनकी बुद्धि पर तरस खाकर बोले- तुमने यह क्या किया। इतनी अच्छी ऑफर को छोड़ कर यह अध्यापक का कार्य, जहाँ 30 रुपये महीना मिलता है। क्या होगा इससे? अंत में दाह संस्कार के लिए भी पैसे नहीं बचेंगे।
तिलक ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- दोस्त, बहुत सोचने के बाद यह निर्णय लिया है क्योंकि यह नौकरी बहुत पवित्र है। यह वह भूमि है, जिसको सींचने पर ऐसे फूल खिलेंगे, जिसकी खुशबू पूरे देश, बल्कि विश्व को सुवासित करेगी। रही बात दाह संस्कार की, तो अगर मेरे पास तब तक पैसे नहीं बचेंगे तो दाह संस्कार का काम तो नगरपालिका वैसे ही कर देगी। इसके लिए चिंता की जरूरत नहीं है।
मित्र की बात सुनकर सारे मित्र सुखद आश्चर्य में डूब गए। जहाँ उनका जमीर भी पावन होता चला गया, क्योंकि उन्होंने, ऐसी संतुष्टि के भाव आज तक किसी व्यक्ति के नहीं देखे थे।
सब के सब कुछ न कुछ अच्छा करने के संकल्प के साथ तिलक के प्रति श्रद्धांवत हो गए।
संतुष्टि ही परम सुख है, परम शांति है। गलत तरीके से कमाकर ऐश्वर्य का प्रदर्शन, वो कुछ समय के लिए भी भीतर में शांति नहीं दे सकता। इंसान को हर दिन कुछ न कुछ अच्छा काम करते रहना चाहिए।