माँ का अपूर्व जुड़ाव बच्चों के साथ

प्रत्येक धर्मशास्त्रों में माता-पिता के उपकारों की गुण-गाथा बहुत उच्च कोटि के शब्दों में गाई गई है।

पिता अपने कर्तव्य के अनुसार सारा कार्य करते हैं। बच्चों की हर माँग को पूरी करते हैं। बच्चों के लिए पूरे सावधान रहते हैं। लेकिन माँ का बच्चे के साथ अपूर्व जुड़ाव रहता है। गर्भ में बच्चे के साथ रसवाहिनी नाड़ी के साथ माँ का जुड़ाव रहता है। जिससे माँ के द्वारा ग्रहण किए गए आहार में से सार-सार बच्चे को मिलता है और बच्चा उस सारभूत आहार को पूर्णरूपेण अपने शरीर को बनाने में परिणमित कर लेता है। क्योंकि उस आहार में निस्सार कुछ होता ही नहीं है।

माँ गर्भगत बच्चे के लिए अति तीखा, कड़वा, कषैला, खट्टा आदि पदार्थ खाना छोड़ देती है। अश्लील पिक्चर देखना छोड़ देती है। अश्लील बातें करना छोड़ देती है। बच्चे में संस्कार आवे, इस हेतु धर्म करने लगती है। कहते हैं- ‘भगवान सभी जगह उपस्थित नहीं रह सकते हैं। जो हर परेशानी और हर मुश्किल घड़ी में अपने बच्चों का साथ देती है, वह माँ होती है।’

बच्चे के जन्म के बाद माँ अपना हर पल बच्चे के जीवन को संवारने में लगा देती है। बच्चों के बेहतर कैरियर के लिए अपने आपको सर्वतोभावेन समर्पित कर देती है। संस्कारों का बीजारोपण करती हुई सही मार्गदर्शन भी देती है।

माँ का दिल कोमल होता है। वह बच्चे की प्रत्येक गलती पर पिता की तरह से भड़कती नहीं है। अपितु प्यार से गलती सुधारने का बोलती है। यानी बच्चों के दुःख सुख को माँ अपना दुःख सुख समझती है। यहाँ तक कि बच्चे अपना कैरियर बनाने या नौकरी के लिए दूसरे शहरों या विदेशों में जाकर रहने की जिद्द करते हैं। उस समय भी अपनेबच्चे की खुशी के लिए बिना चाह के भी अपने हृदय पर पत्थर रख कर उनकी इच्छानुसार विदेश भेजने के लिए अपने पति से स्वीकृति दिलवाती उनकी या बाहे कितना भी बुद्धिमान, होशियार, काम करने में सक्रिय हो, पर माँ को हमेशा चिंता रहती है कि बेटा कैसे क्या रहता होगा? क्या खाता होगा? किस प्रकार अपना सारा काम करता होगा? सोचती हुई भोजन करते-करते भी आँखें आँसुओं से भर जाती हैं। पर वह अपना यह दुःख बच्चों को नहीं बताते हुए उसे उसकी तरक्की हेतु प्रोत्साहन, साहस, हौसला देती रहती है। यथा समय बेटे के वापस आने का इंतजार भी बेतहाशा करती है। हर पवन के झोंके से सुनना चाहती है कि बेटा इस स्टेशन तक आ गया है। बेटे के आने के बाद उससे बहुत मीठी-मीठी बातें करती है। बहुत ध्यान रखती है।

जैसे गर्भगत बच्चे के साथ माँ की रस-वाहिनी नाड़ी जुड़ी रहती है, वैसे ही ममतामयी माँ की धड़कन बच्चे की धड़कन के साथ प्रतिपल जुड़ी रहती है। बेटे की धूमधाम के साथ सुंदर कन्या के साथ शादी करवाती है। बहू को बहुत दुआएँ देती है, शुभकामनाएँ करती है।

यह है माँ।

माँ वृद्ध हो गई, काम होना बंद हो गया। प्रेम से कहीं जाने वाली हितकारक बात भी बेटे को पसंद नहीं आने लगी। ‘बेटा! तू आ गया।’ अंतरंग प्रेम के साथ माँ के द्वारा बोला जाने वाले वाक्य का उत्तर भी क्रोध से सने हुए कटु वाक्यावलियों के साथ आने लगा। माँ वात्सल्य भरे हृदय के साथ पोते-पोतियों से बोलना चाहती है तो उन्हें घृणा भरे शब्दों के द्वारा तिरस्कार करते हुए बच्चों को हटाया जा रहा है। आखिर वृद्धाश्रम में वृद्धा को जगह मिली।

एक बार रात में नींद नहीं आ रही थी। रात्रि के तीन बजे थे। कैलेंडर पर नजर पड़ी। अरे आज तो बेटे का बर्थडे है व इसी समय तीन बजे ही जन्मा है। माँ ने बेटे को हैप्पी बर्थडे का फोन लगाया।

बेटा – (गुस्से में) इतनी रात में फोन क्यों लगाया ?
माँ -बेटा आज तेरा हैप्पी बर्थडे है।

बेटा-सवेरा होने के बाद ही बोल देती? अभी रात में यह नाटक क्यों कर रही हो?

माँ -बेटा, अभी रात्रि में…।

बेटा- हमारी सारी नींद हराम कर दी।

बेटे ने फोन रख दिया। माँ सोचने लगी- इसको तो हैप्पी बर्थडे कहा तो वह उलटा बोल रहा है। किंतु जब इसने जन्म लिया था, वह रात मेरी पूरी कैसी निकली थी।

आज बेटे माँ-बाप के उपकारों को भूल जाते हैं। जिस समय माँ-बाप को बेटे की आवश्यकता होती है। उन्हीं पलों में बेटे उन्हें धोखा दे देते हैं। कई बेटे अपने माँ-बाप से मीठे पलों में दस्खत करवा कर बाद में उन्हें घर से धक्का दे देते हैं। कई माँ-बाप अस्पतालों, वृद्धाश्रमों में जिन्दगी बिता रहे हैं। इस प्रकार माँ-बाप को घर से धक्का देकर, कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।

किसी चिंतक ने संदेश दिया है- तूने जब धरती पर पहला श्वास लिया, तब मेरे माता-पिता तेरे पास थे। अब माता-पिता जब अंतिम श्वास लें, तब तू उनके पास रहना।

माँ-बाप को सोने से न मढ़ो, चलेगा। हीरे से न जड़ो. तो चलेगा, पर उनका जिगर जले और अंदर आँसू बहायें, वह कैसे चलेगा?

जिसके घर में दादा-दादी या माँ-बाप के आँखों में जितनी बार आँसू आ रहे हैं, उतनी तीव्रता से आपके घर की ऑफिस की पुण्यवानी आपसे अलग होकर भाग रही है। घर में माँ-बाप को देव रूप माने। माता-पिता को चन्द्र सूर्य समझ कर अर्चनीय समझें।

माता-पिता के अंतर्दिल से मिले आशीर्वाद आपको अपने कार्य क्षेत्र में तीव्रता से गति देने वाले बनते हैं। माता-पिता के दिल की दुआएँ लाखों मंत्रों, तंत्रों से भी बढ़कर है। माता-पिता की सेवा असफलताओं में आने वाली अनेक बाधाओं को क्षण भर में दूर कर देती है।
ज्ञान की बातें-३

दिशा निर्देश : युगद्रष्टा आचार्य प्रवर श्री ज्ञानचन्द्र जी म.सा

प्रस्तुति: साध्वीरत्ना अस्मिता श्री जी म.सा

(1) अनंतानुबंधी चौक मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय के . उपशम या क्षयोपशम होने के साथ समकित मोहनीय का वेदन करते हए (विपाकोदय) जीव का जो तत्व श्रद्धान रूप परिणाम होता है, उसे क्षयोपशम समकित कहते हैं।

(2) क्षयोपशम समकित में समकित मोहनीय के उदय की नियमा है। मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय का क्षयोपशम, उपशम या क्षय भी हो सकता है तथा अनंतानुबंधी चौक का क्षयोपशय उपशम और विसंयोजना से क्षय हो सकता है।

(3) क्षयोपशम समकित एक भव में एक बार उत्कृष्ट पृथक्त्व हजार बार (2000 से 9000) प्राप्त हो सकती है तथा अनेकों भवो की अपेक्षा जघन्य दो बार उत्कृष्ट असंख्यात बार प्राप्त हो सकती है। (असंख्यात बार की गितनी असंख्यात भवों को अपेक्षा से जानना।) एक-दो आदि संख्यात भवों से नहीं।


(4) क्षयोपशम समकित वाले जीव के यदि अध्यवसाय विशेष विशुद्ध हो जाते हैं तो वही जीव उपशम समकित या क्षायिक समकित को प्राप्त कर लेता है। क्षयोपशम समकित से क्षायिक समकित पाने वाला जीव हो क्षायिक समकित पाने से पहले वेदक समकित को भी प्राप्त करता है।

यदि क्षयोपशम समकित में रहते हुए जीव के अध्यवसायसंक्लेश युक्त हो जाते हैं वह जीव क्षयोपशम समकित को छोड़ कर मिश्र समकित या मिथ्यात्व में आ सकता है। क्योंकि मिथ्यात्व या मिश्र मोहनीय का उदय हो जाता है तो समकित गुण विलीन हो जाता है और वह जीव मिथ्यात्वी या मिश्र दृष्टिवाला बन जाता है। क्षयोपशम समकित से उपशम समकित या क्षायिक समकित में जाने वाले जीव के भी मिध्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के सर्वघाती अंश देश घाती में संक्रमित होते रहते हैं। दोनों का प्रदेशोदय चालू रहता है और समकित मोहनीय का विपाकोदय चालू रहता है। क्षयोपशम समकित चौथे से सातवें गुणस्थान तक रहती है।

(5) समकित भवी जीवों को ही प्राप्त होती है। अभवी जीवों को कोई भी समकित प्राप्त नहीं होती है। भवी जीव, अभवी जीवों से अनंत गुणा ज्यादा हैं।

(6) जिनमें भव का अंत करने की तथा मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता हो, उन जीवों को भवी कहते हैं। जिन जीवों में भव का अंत करने की तथा मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता ही नहीं हो, जो चारों गतियों में ही सदा काल जन्म-मरण करते रहेंगे, उन जीवों को अभवी कहते हैं। किन्तु कौन सा जीव भवी है और कौन सा जीव अभवी है, इसका सही निर्णय केवलज्ञानी के अलावा कोई नहीं कर सकता है।

गुरु भगवंत ऐसा फरमाते आए हैं कि जिनके मन में मोक्ष प्राप्ति की ललक हो, जो पाप भीरू हो, क्षमावान हो, धर्मी हो या जिन्हें अपने लिए यह जानने की प्रबल इच्छा हो कि मैं भवी हूँ या अभवी ! उसे मोटे तौर पर भवी समझा जा सकता है।

(7)अभवी जीव मिथ्यात्व की ग्रंथि का भेदन नहीं कर पाते हैं। वे यथाप्रवृत्तकरण की प्रक्रिया से, कर्मों की स्थिति को अंतः कोड़ाकोड़ी सागरोपम करके ग्रंथि देश को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उसे भेद नहीं सकते। इसलिए उनके मिथ्यात्व नामक पहला गुणस्थान छूट नहीं पाता है। और जब तक मिथ्यात्व नहीं जाता तब तक जीव आगे के गुणस्थानों में जा नहीं सकता है अर्थात् समकित प्राप्त नहीं कर सकता। तथा समकित पाए बिनामोक्ष पाना भी सम्भव नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए समकित प्राप्त करना अनिवार्य है। समकित की प्राप्ति के बाद जीव कभी न कभी अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है।

(8) अभवी जीव नियमा कृष्णपक्षी ही होते हैं, जबकि भवी जीव शुक्लपक्षी तथा कृष्णपक्षी दोनों तरह के होते हैं। जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्ध पुद्गल परावर्तन काल से भी अधिक बाकी है. उन्हें कृष्णपक्षी कहते हैं। जिनका संसार परिभ्रमण अर्थ पुद्गल परावर्तन काल या उससे भी कम बाकी है. उन्हें शुक्लपक्षी कहते हैं। अर्थात् जो अर्ध पुद्गल परावर्तन काल के बाद निश्चित ही मोक्ष जायेंगे, वे जीव शुक्लपक्षी कहलाते हैं।

(9) अधिकांश भवी जीव व्यवहार राशि में आने के बाद ही शुक्लपक्षी हो पाते हैं। किन्तु कोई-कोई भवी जीव अव्यवहार राशि में भी शुक्लपक्षी बन जाते हैं। अर्ध पुद्गल परावर्तन काल का अधिकांश समय भी वह जीव अव्यवहार राशि में पूरा कर सकता है। व्यवहार राशि में आने के बाद कुछ भव करके क्षयोपशम समकित व क्षायिक समकित को प्राप्त करके मोक्ष जा सकता है।

महासाध्वीरत्ना ललिता श्री जी म.सा.

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